एक बार चाणक्य अपने शिष्यों के साथ सम्राट चन्द्रगुप्त से राजकाज सम्बन्धी कार्यों के लिए मिलने जा रहे थे। रास्ते में एक मैदान था जिसमें एक विशेष प्रजाति कुश नामक घास उगी हुई थी। चाणक्य जब उस मैदान से गुजर रहे थे तब कुश का तीखा और नुकीला सिरा उनके पांव में चुभ गया। उनके मुंह से आह निकल गयी।चाणक्य ने नीचे झुककर उस घास को देखा और फिर अपने शिष्यों से कुदाल मंगवाई और फिर स्वयं अकेले ही अपने हाथों से मैदान की सारी घास को उखाडऩा शुरू कर दिया. जब सारी घास उखड़ गयी तो चाणक्य ने कुश घास की जड़ों को भी निकालकर जला दिया। तत्पश्चात उन्होंने अपने शिष्यों से मठ्ठा (कच्चा घी जो छाछ बिलो कर निकाला जाता है) मंगवाया और सारी जमीन को उससे सींच दिया ताकि कुश फिर कभी ना पनप सके और किसी राहगीर को कष्ट ना पहुंचा सके।
यह सब देखकर एक शिष्य ने जिज्ञासावश चाणक्य से पूछा, ‘ गुरूजी, इस नुकीली घास को निकालने के लिए आपने खुद इतनी मेहनत क्यों की ? आपने हमें आदेश दिया होता, हम शीघ्र ही यह कार्य कर देते।
चाणक्य यह सुनकर मुस्कुराये और बोले, ‘ तुम सबको एक शिक्षा देने के लिए ही मैंने यह कार्य स्वयं किया है. यह करके मैं तुम सबको यह सिखाना चाहता हूँ कि बुराई को हमेशा जड़ से खत्म किया जाना चाहिए. जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे तो बुराई कभी ना कभी किसी ना किसी को अपनी चपेट में लेती ही रहेगी। इसलिए बुराई को सिर्फ दूर नहीं करना चाहिए बल्कि इसे जड़मूल से समाप्त कर देना चाहिए, ताकि यह वापस कभी ना पनप सके।Ó

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